चलो मस्त तुम तो धरा डोल देगी ।
अगर तुम हुंकारों चिता बोल देगी ॥
बनो निश्चयी प्रात को वश में कर लो ।
बनो भास्कर रात को वश में कर लो ॥
कि तुम भोर के दीप बनकर न बैठो ।
कि झिलमिल सितारों को आँचल में भर लो ॥
बनो विक्रमी एक संवत चला दो ।
कि तुम एक होली नयी फिर जला दो ॥
अगर मौन बन करके आघात खाए ।
तो धिक्कार तुम इस धरा पे क्यों आये ॥
बनो साहसी सेतु सागर पे बाँधो ।
समुन्दर कि लहरों को तुम दास कर लो ॥
धरा तो तुम्हारे बहुत सन्निकट है ।
गगन, रश्मियाँ, रवि को तुम पास कर लो ॥
तो तुम युग प्रवर्तक कि मूरत बनोगे ।
तो तुम मेरु गिरि कि तरह फिर तनोगे ॥
स्वयं आके घन तुम पे बरसायेगा जल ।
है बहुमूल्य तेरा दिवस, रात्रि, क्षण, पल ॥
कि पुरुषत्व ललकार पर ना भुलाना ।
कि अमरत्व जीवन में लेकर न आना ॥
तभी कौरवो को पराजित करोगे ।
तभी तीर तुम तरकशो में भरोगे ॥
कि हाथो से नित तू प्रलय का सृजन कर ।
कि फिर से कमंडल में संजीवनी भर ॥
कि तू भाग्य का जा स्वयं बन विधाता ।
तो फिर देखना कौन सम्मुख है आता ॥
(०५-०६-२०००)
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