Sunday, August 14, 2011

चलो मस्त तुम तो धरा डोल देगी

चलो मस्त तुम तो धरा डोल देगी ।
अगर तुम हुंकारों चिता बोल देगी ॥

बनो निश्चयी प्रात को वश में कर लो ।
बनो भास्कर रात को वश में कर लो ॥

कि तुम भोर के दीप बनकर न बैठो ।
कि झिलमिल सितारों को आँचल में भर लो ॥

बनो विक्रमी एक संवत चला दो ।
कि तुम एक होली नयी फिर जला दो ॥

अगर मौन बन करके आघात खाए ।
तो धिक्कार तुम इस धरा पे क्यों आये ॥

बनो साहसी सेतु सागर पे बाँधो ।
समुन्दर कि लहरों को तुम दास कर लो ॥

धरा तो तुम्हारे बहुत सन्निकट है ।
गगन, रश्मियाँ, रवि को तुम पास कर लो ॥

तो तुम युग प्रवर्तक कि मूरत बनोगे ।
तो तुम मेरु गिरि कि तरह फिर तनोगे ॥

स्वयं आके घन तुम पे बरसायेगा जल ।
है बहुमूल्य तेरा दिवस, रात्रि, क्षण, पल ॥

कि पुरुषत्व ललकार पर ना भुलाना ।
कि अमरत्व जीवन में लेकर न आना ॥

तभी कौरवो को पराजित करोगे ।
तभी तीर तुम तरकशो में भरोगे ॥

कि हाथो से नित तू प्रलय का सृजन कर ।
कि फिर से कमंडल में संजीवनी भर ॥

कि तू भाग्य का जा स्वयं बन विधाता ।
तो फिर देखना कौन सम्मुख है आता ॥

(०५-०६-२०००)

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