Sunday, October 11, 2009

जानिब से मेरी शुक्रिया (०७-०१-२००१)

जानिब से मेरी शुक्रिया मोहतरमा आपको ।
तस्लीम मेरा आपको ख़त आपका मिला ॥
इन अक्षरों में अक्श उभरता है आपका ।
चेहरे पे आफ़ताब निकलते हुए मिला ॥
खुशकिस्मती हमारी है हम याद आपको है ।
वरना जो मिला रुख को बदलते हुए मिला ॥
माना की पत्थरों से कुचले गए है फूल ।
पर गुलिस्ता पत्थर में भी खिलते हुए मिला ॥
कुर्बानियों का सिलसिला ठहरे न इसलिए ।
इंसान अपने जख्मो को सिलते हुए मिला ॥
कितनो को आगे बढ़के संभालेगे आप भी ।
मुझको जो मिला गिर के संभलते हुए मिला ॥
आवाज़ में न लाइए यूं बेरुखी इतनी ।
सूरज भी कहीं पर हमे ढलते हुए मिला ॥
दरिया की रवानी को मत दीजिये हवा ।
तूफ़ान हमको सीनों में पलते हुए मिला ॥
आपस में लड़ेगे तो सरहद पे क्या होगा ।
अरे ! बर्फ में जवान पिघलते हुए मिला ॥

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