Saturday, October 16, 2010

ये माना कि नज़र में हम

खुदा से क्या कहू अब मै वही तो है खुदा मेरे ।
दुवा को हाथ ये उठते नहीं क्या क्या करम है ॥
ये
माना कि नज़र में हम नहीं है तो न रखिये बस
नज़र में तुम मेरी हो बस यही एहसान क्या कम है
कभी मै जख्म खाकर भी नहीं रोया यहाँ इतना
तो फिर क्यों देखने पर आपको आँखे मेरी नम है
बड़ी मजबूरिया है और बहुत गम भी छुपाये है
मगर हम मुस्कुराते है यही क्या बात है हम है
चिरागों से नहीं अब रौशनी आती मेरे घर में
मै कैसे बोल दू कि अब बड़ा अच्छा ये मौसम है
बड़े अरमान पाले थे कि कुछ तो गुफ्तगू होगी
मगर वो कुछ नहीं कहते ये हम पर तो सितम है
मेरे ख्वाबो में भी आने से कतराते है अब तो वो ।
यही एक रास्ता था उनसे मिलने का ये गम है ॥
अनिल अब तो चलो किससे कहोगे हाले दिल अपना ।
कि जिससे भी कहो हँसता है छोडो जो भरम है ॥

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