Saturday, January 15, 2011

जिन्हें हम ढूढ़ते थे

जिन्हें हम ढूढ़ते थे, आज तक अपने खयालो में ।
वो कैसे मिल गए थे, कल मुझे दिन के उजालो में ॥
जिन्हें हम सोचते थे, वो मुझे कुछ तो कहेगे पर ।
वो उल्टा खुद हमे उलझा, गए अपने सवालो में ॥

अजब है बात कि अब, बात तो कुछ भी नहीं होती ।
है आँखों में गिले, बरसात पर कुछ भी नहीं होती ॥
वो आते है न जाते है, शिकायत भी करे किस से ।
कि भूले है ये दिन, हम रात तो कुछ भी नहीं होती ॥

कि वो एक दौर था, हम रोज मिलते थे कही पर अब ।
कि चाहो लाख पर, एक बार भी सूरत नहीं मिलती ॥
जिसे हम पूज लेते, सर झुकाते, चुप खड़े रहते ।
मगर अब ढूढ़ता हू, वो कही मूरत नहीं मिलती ॥

नज़र भी सामने होगी, सफ़र भी सामने होगा ।
नहीं मालूम था वो, सामने ही मुस्कराएगा ॥
फिजा महकी हुवी होगी , हवा बहकी हुवी होगी ।
नहीं मालूम था मुझको, कि वो अब फिर न आएगा ॥

मुझे मालूम है, ये चाँद तो उस आसमा का है । ।
सितारों में अकेला है, बताना क्या जरुरी है । ।
मुझे मालूम है छूना उसे एक ख्वाब है लेकिन ।
मिले या ना मिले ये सब जताना क्या जरुरी है ॥

2 comments:

  1. पैरोडी अच्छी है!

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  2. सर आप बहुत अच्छी कविता लिखते हैं,
    पंक्तियों को बहुत ही सादगी एवम सलीखे से सजाया है।

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