Sunday, February 21, 2010

बड़े मासूम होकर धूप में दिन भर खड़े रहते

तो बिस्मिल याद आते थे जवाहर याद आये थे ।
कि जाकर हम कभी स्कूल जब झंडा उठाये थे ॥
बड़े मासूम होकर धूप में दिन भर खड़े रहते ।
कि लड्डू एक पाने पर बहुत हम मुस्कराए थे ॥
है मुझको याद आता मास्टरजी का सबक इस दम ।
कि उस दम मार खाने पर बहुत आशुं बहाए थे ॥
हूँ हँसता सोच कर इस दम कि क्या वो दौर था अपना।
कि कुछ कार्टून हमने बोर्ड पर उनके बनाये थे ॥
वो मिलती जब कभी कहती है मेरी चीज वो दे दो ।
कि उसके हाथ कि दो चूड़ियाँ हम तोड़ लाये थे ॥
मगर है याद मुझको आज तक वो लंच का डिब्बा ।
कि मैंने उसके डब्बे के पराठे रोज खाए थे ॥न जाने आज क्या है हो गया जो आँख भर आई ।
की वो एक दौर था जब देर तक हम मुस्कुराये थे ॥

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बचपन के दिन

वो बिस्मिल याद आते थे जवाहर याद आते थे ।
कि हम स्कूल जाकर जब वहाँ झंडा उठाते थे ॥
बड़े मासूम होकर, धूप में दिन भर खड़े रहते ।
कि लड्डू एक पाने पर बहुत ताली बजाते थे ॥

है मुझको याद आता मास्टरजी का सबक इस दम ।
कि उस दम मार खाने पर बहुत आंशू बहाते थे ॥
हूँ हँसता सोच कर क्या दौर था कैसी शरारत थी ।
कि क्यों  कार्टून हम उस बोर्ड पर, अक्सर बनाते थे ॥

वो जब मिलती है कहती है, कि मेरी चीज वो दे दो ।
कि उसके हाथ कि कुछ चूड़ियाँ हम तोड़ लाते थे ॥
है मुझको याद उसके लंच का डिब्बा चुरा लेना  ।
कि उसके हाथ से छीने पराठे रोज खाते थे ॥

न जाने आज क्या है हो गया क्यूँ  आँख भर आई ।
की वो एक दौर था जब देर तक हम मुस्कुराते थे ॥

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